Thursday, September 28, 2023

आईपीएम की आध्यात्मिक तौर पर विवेचना भाग 1

जीवन से तथा जीवन की मूल आत्मा से जुड़े हुए अध्ययन को ही आध्यात्मिक कहा जाता है। आध्यात्मिक तौर पर जीव अथवा जीवन की रचना पांच तत्वों से मिलकर बनी है जिनको परमात्मा ने स्वयं प्रकृति के रूप में बनाया है और जिसका संचालन स्वयं प्रकृति के द्वारा प्रकृति में पाए जाने वाले जैविक और अजैविक कारकों के द्वारा किया जाता है क्योंकि यह कारक एक दूसरे पर आश्रित होते हैं और जीवन का संचालन कर ते है ।
संत श्री तुलसीदास जी ने कहा है
 क्षित ,जल ,पावक, गगन, समीरा
पंचतत्व मिल बना शरीरा
अर्थात जीव की संरचना उपरोक्त पांच तत्वों से मिलकर बनी है यह तत्व इस प्रकार से हैं।
क्षति=मिट्टी,soil,Earth
जल =पानी=water
पावक=आग=कार्बन=Organic Chemistry=सौर ऊर्जा
गगन=आकाश=ब्रह्मांड ऊर्जाCosmic Energy.
समीर=वायु mixer  of Nitrogen,Oxygen,Corbon di Oxide etc.
यह पांचो तत्व प्रकृति के संसाधन हैं जिन्हें सम्मिलित रूप से भगवान भी कहा जाता है भगवान शब्द का अर्थ इस प्रकार से है।
भ= भूमि
ग =गगन अथवा आकाश<=ब्रह्मांड ऊर्जा एवं सौर ऊर्जा
वा=वायु=हवा=एयर
न=नीर=पानी=वाटर
 अर्थात शरीर की रचना मिट्टी ,पानी, आग,आकाश, हवा के द्वारा हुई है परंतु विडंबना यह है कि अब यह पांचो तत्व प्रदूषित हो चुके हैं। और इनको प्रदूषित करने में मनुष्य का बहुत बड़ा योगदान है मनुष्य अपने आप को प्रकृति का सिरमौर अर्थात टॉप ऑफ द क्रिएचर कहता है या मानता है तथा अपना अस्तित्व इस प्रकृति में हर हालत में बनाए रखना चाहता है । इन तत्वों को प्रदूषित करने में मनुष्य की कभी ना खत्म होने वाली इच्छाएं हैं जो अनंत है। इन इच्छाओं की पूर्ति के लिए मनुष्य प्रकृति को नष्ट कर रहा है तथा उपरोक्त तत्वों को प्रदूषित कर रहा है।
   एक दिल लाखों तमन्ना और उसे पर ज्यादा हविश
   फिर ठिकाना है कहां उसको टीकाने के लिए
मनुष्य अपने इच्छाओं की पूर्ति के लिए प्रकृति के संसाधनों को नष्ट कर रहा है एवं प्रदूषण कर रहा है। प्रकृति में मनुष्य ही सिर्फ ऐसा एक जीव है जो आवश्यकता से अधिक प्रकृति के संसाधनों का उपयोग करता है ।
 प्रकृति में ऐसा दूसरा कोई अन्य जीव नहीं है जो अपनी आवश्यकता से अधिक प्रकृति के संसाधनों का प्रयोग करता हो।
  दिमाग की गीजा हो या gijai जिस्मानी
  यहां तो हर गीजा में मिलावट मिलती है
उपरोक्त तत्वों को प्रदूषित करने में फसल उत्पादन में बढ़ते हुए रासायनिक किट नशकों एवं उर्वरकों के अंधाधुंध प्रयोग का महत्वपूर्ण योगदान है जिससे  , स्वास्थ्य,पर्यावरणीय तथा इकोलॉजिकल समस्याएं पैदा हो गई हैं।
इन समस्याओं के निवारण हेतु इन रासायनिक कीटनाशकों एवं उर्वरकों के प्रयोग को कम करना अति आवश्यक हो गया है जिसके लिए एकीकृत नासिजीव प्रवधन पद्धति को नासि जीव प्रबंधन हेतु बढ़ावा देना आवश्यक है ।
फसलों को पौधे के रूप में तथा जंतुओं को जीवन के रूप में प्रकृति ने बनाया है फसलों के उत्पादन हेतु मिट्टी अथवा सॉइल जैसे मध्यमअथवा मीडियम की आवश्यकता होती है अतः फसलों को उत्पादन करने के लिए मिट्टी का बलवान होना अति आवश्यक है मिट्टी में पाए जाने वाले सूक्ष्मजीव ,सूक्ष्म तत्व, ह्यूमस ,मॉइश्चर ,नमी तथा प्रकृति में पाई जाने वाली ब्रह्मांड एवं सौर ऊर्जा का फसल उत्पादन में अपना विशेष महत्व है।
       प्रकृति में चल रही स्वचालित self organised, स्वयं सक्रिय self active,स्वयं पोशी, self nourishedस्वयं vikashi, स्वयं नियोजित self planned सहजीवी  symbiotic एवं आत्मनिर्भरself sustained फसल उत्पादन, फसल रक्षा एवं फसल प्रबंधन पद्धति के आधार पर प्रकृति में प्राकृतिक खेती की जाती है या होती है जिसमें मनुष्य का कोई योगदान नहीं होता है यह स्वयं प्रकृति के द्वारा संचालित की जाती है प्रकृति में चल रही इसी प्राकृतिक खेती की व्यवस्था का अध्ययन करके अब प्राकृतिक खेती को समाज के विकास अथवा उत्थान हेतु बढ़ावा दिया जा रहा है। प्राकृतिक खेती आईपीएम का ही एक सुधार।हुआ रूप है जिसमें फसलों के उत्पादन एवं फसलों की रक्षा हेतु रसायनों का इस्तेमाल नहीं किया जाता है तथा भूमि की उर्वरा शक्ति, खेतों की जैव विविधता, जमीन में जैविक कार्बन की मात्रा तथा हमस Humus तथा इसको जमीन में बनाने वाले सूक्ष्म जीवों और सूक्ष्म तत्वों ,जमीन में भूमि जल स्तर को ऊपर लाने वाले प्रयासों तथा वर्षा जल संचयन के प्रयासों को बढ़ावा देकर देसी गायों ,फसलों के देसी बीजों की प्रजातियां को संरक्षित करते हुए गायों के मूत्र एवं गोबर के प्रयोग को करते हुए इन पर आधारित इनपुट तथा देश देशी बीजों की प्रजातियों के इनपुट को बढ़ावा देते हुए उचित लाभकारी फसल चक्र एकल फसल पद्धति के स्थान पर बहू फसली पद्धति का फसल चक्र अपना कर ,नवीन विधियो के साथ-साथ पारंपरिक विधियों को शामिल करते हुए, परिवार जिसमें जानवर भी शामिल हैं ,समाज ,सरकार ,व्यापार और बाजार की जरूरत के हिसाब से फसलों का नियोजन अथवा चयन करते हुए स्वस्थ समाज की कामना करते हुए कम से कम खर्चे में अथवा शून्य लागत पर जो खेती की जाती है उसे ही हम प्राकृतिक खेती कहते हैं। यह खेती देसी बीजों ,देसी गाय, देसी केंचुआ ,देसी पद्धतियों,देसी गाय के मल मूत्र एवं गोबर के प्रयोग पर आधारित इनपुट तथा देसी परंपराओं पर आधारित वीडियो पर खेती करने का एक तरीका है।
   प्राकृतिक खेती के लिए पानी की पूर्ति मानसून से प्राकृतिक तौर पर परमात्मा के द्वारा की जाती है। हवा नाइट्रोजन का महासागर है। पौधे हवा से नाइट्रोजन लेते हैं। पौधे अपने भोजन को बनाने के लिए कार्बन डाइऑक्साइड भी वातावरण से अथवा हवा से लेते हैं। सूरज की रोशनी पानी कार्बन डाइऑक्साइड तथा क्लोरोफिल जो हरे रंग का पदार्थ पौधों में पाया जाता है की सहायता से प्रकाश संश्लेषण क्रिया के द्वारा पौधे अपना भोजन मानते हैं। फसलों की उर्वरा शक्ति जमीन में पाए जाने वाले ह्यूमस से बढ़ती है इसका निर्माण विभिन्न प्रकार के मिट्टी में पाए जाने वाले सूक्ष्म जीव के द्वारा पौधों खरपतवार ऑन तथा अन्य प्रकार के पौधों के भाग ऑन के विघटन के द्वारा किया जाता है। मिट्टी में विभिन्न प्रकार के सूक्ष्म तत्व पाए जाते हैं जो पौधों के वृद्धि में सहायक होता है। मिट्टी इन सूक्ष्म तत्व का महासागर है । कुछ फसलों की जड़ों में ऐसे बैक्टीरिया पाए जाते हैं जो भूमि में नाइट्रोजन फिक्सेशन पर मदद करते हैं यह बैक्टीरिया ज्यादातर दाल है नहीं फसलों में पाए जाते हैं इसके साथ-साथ यह बैक्टीरिया कुछ प्रकार के खरपतवारों की चलो आदि में भी पाए जाते हैं भी पाए जाते हैं । इस प्रकार से प्रकृति प्रकृति में फसल उत्पादन व्यवस्था प्राकृतिक रूप से चलती रहती है। इस प्रकार से प्रकृति में स्वचालित व्यवस्था चल रही है जिससे फसलों का उत्पादन होता है।

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