भारत एक कृषि प्रधान
देश है । आजादी के बाद कृषि के क्षेत्र में भारत ने कई कीर्तिमान स्थापित किए हैं
जिनमें से अनाज उत्पादन में हरित क्रांति, दुग्ध उत्पादन
में धवल क्रांति, मछली उत्पादन में नीली क्रांति एवं तेल
उत्पादन में पीली क्रांति प्रमुख है । इन सभी कीर्तिमानों का श्रेय देश के
नीतिकार, वैज्ञानिकों, कृषि प्रचार एवं प्रसार कार्यकर्ताओं एवं हमारे
देश के महान किसानों को जाता है । इन कीर्तिमानों के स्थापित होने के साथ-साथ
देश में जनसंख्या वृद्धि भी तेजी से हुई है। अनाज उत्पादन में आत्मनिर्भर होने
की वजह से इस देश की बढ़ती हुई आबादी को भरपूर भोजन देने में एवं अंतर्राष्ट्रीय
व्यापार में भागीदारी रखने में हमारे कृषकों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है ।
जनसंख्या में लगातार वृद्धि, शहरीकरण की वजह से कृषि योग्य भूमि
में कमी होना, नाशीजीवों के परिदृश्य में
बदलाव आना, नए-नए नाशीजीवों का उभरकर
आना, जलवायु परिवर्तन जैसे अचानक
सूखा, लगातार बरसात एवं बाढ़ आदि, नाशीजीवों का कीटनाशकों के प्रति
प्रतिरोधी होना । फसल उत्पादन की लागत बढ़ना, फसल उत्पादों का न्यूनतम समर्थन मूल्य कम होना एवं गुणवत्ता
युक्त कीटनाशकों तथा उर्वरकों की कमी, मिटटी की संरचना में लगातार बदलाव, निष्प्रभावी नाशीजीवों का प्रभावी
नाशीजीवों के रूप में उत्पन्न होना । विदेशी नाशीजीवों का देश में प्रतिस्थापित
होना आदि कृषि उत्पादन की कमी के प्रमुख समस्याएं एवं कारण हैं । आजादी के बाद
रसायनिक कीटनाशकों एवं उर्वरकों को प्रमुख कृषि आगत (इनपुट) के रूप में प्रयोग
किया गया जिससे जहां एक तरफ कृषि उत्पादन बढ़ा वहीं दूसरी तरफ तरह-तरह की
पर्यावरणीय एवं स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं बढ़ गईं जिनकी वजह से पर्यावरण
संतुलन बिगड़ गया कृषि उत्पादन में अधिक खर्च होने लगा । अब यह प्रश्न उठता है
कि उपर्युक्त चुनौती के होते हुए कम से कम लागत से प्रति इकाई क्षेत्रफल में अधिक
से अधिक पैदावर कैसे ली जाए । जिसके फलस्वरूप पर्यावरण को कम से कम नुकसान हो ।
एकीकृत नाशीजीव प्रबंधन वनस्पति
स्वास्थय प्रबंधन की एक प्रमुख विधि है जिसमें नाशीजीव नियंत्रण की विभिन्न
विधियों को एक साथ सम्मिलित रूप से आवश्यकतानुसार प्रयोग करके नाशीजीवों की संख्या
को आर्थिक हानि स्तर के नीचे सीमित रखा जाता है । इस विधि में रासायनिक कीटनाशकों
को अंतिम उपाय के रूप में सिफारिश की गई संस्तुति के अनुसार प्रयोग किया जाता है
।
एकीकृत नाशीजीव प्रबंधन (ए. न. प्र.) कृषि वैज्ञानिकों, कृषि प्रचार एवं प्रसार
कार्यकर्ताओं, कृषकों एवं नीतिकारों की
निपुणता को सम्मनवित तरीके से प्रयोग किया जाता है जिसमें कृषकों की प्रमुख
भागीदारी आवश्यक है ।
योजना आयोग के एक प्रपत्र के अनुसार- फसल की पैदावार का 10 से
30 प्रतिशत नुकसान नाशीजीवों, बीमारियों एवं खर-पतवारों के द्वारा
होता है । इस नुकसान को रोकने के लिए कीटनाशकों के योगदान को कम नहीं आंका जा सकता
। भारत में हरित क्रांति के बाद कई प्रकार
के रासायनिक कीटनाशकों का उत्पादन करके उनका प्रयोग कीट, बीमारी एवं खर-पतवार नियंत्रण हेतु
किया गया परंतु कुछ दशकों से ये रासायनिक कीटनाशक अनेक प्रकार की आलोचनाओं का
सामना कर रहे हैं क्योंकि उनका स्वास्थ्य, पर्यावरण एवं जैव-विविधता पर दुष्प्रभाव पड़ने लगा है
। हमारे देश में रासायनिक कीटनाशकों की
औसतन खपत 381 ग्राम प्रति हैक्टेयर (टैक्नीकल ग्रेड) है जबकि विश्व में यह खपत 500 ग्राम प्रति
हैक्टेयर है । सभी प्रकार के कीटनाशकों की कुल खपत का 20 प्रतिशत भाग खर-पतवार
नाशक, 20 प्रतिशत फफूंदी नाशक, 55 प्रतशित कीटनाशक तथा 5 प्रतिशत
जैव कीटनाशक होते हैं जबकि खर-पतवार, फफूंद, कीट
एवं चूहों के द्वारा फसलों का नुकसान क्रमश: 33, 24, 26, 5 प्रतिशत है इसके अतिरिक्त करीब
12 प्रतिशत नुकसान अन्य नाशीजीवों के द्वारा होता है । उपरोक्त आंकड़ों से पता
चलता है कि विभिन्न् प्रकार के कीटनाशकों की खपत विभिन्न प्रकार के नाशीजीवों
के द्वारा होने वाले नुकसान के अनुरूप नहीं है जिसकी वजह से कीटनाशकों का स्वास्थ्य, पर्यावरण एवं जैव-विविधता पर दुष्प्रभाव
पड़ता है । इस दुष्प्रभाव से बचने के लिए यह आवश्यक हो गया है कि फसल को स्वस्थ
रखने हेतु उनकी नाशीजीवों के नियंत्रण के लिए कोई ऐसी प्रबंधन तकनीक अपनाई जाए
जिससे फसल पैदावार पर विपरीत असर न पड़े एवं फसल पैदा करने के लिए कम से कम खर्च
पड़े । इसके अलावा फसल पर्यावरण,
जैव-विविधता एवं मनुष्य,
पशुओं के स्वास्थ्य पर भी विपरीत असर न पड़े ।
भारत सरकार के कृषि मंत्रालय
के कृषि एवं सहकारिता विभाग ने एकीकृत नाशीजीव प्रबंधन के सुदृढ़ीकरण एवं आधुनिकीकरण
नामक एक स्कीम लागू की जिसके अंतर्गत 28 राज्यों एवं 1 केंद्रशासित प्रदेश में
31 केन्द्रीय एकीकृत नाशीजीव प्रबंधन केंद्र स्थापित किए गए हैं । इन
केंद्रों की प्रमुख गतिविधियां निम्नलिखित हैं :
- बोने से लेकर कटाई तक फसलों पर लगने वाले रोगों एवं कीटों पर सतत निगरानी रखना ।
- फसलों के शत्रु एवं मित्र कीटों की पहचान करके मित्र कीटों के माध्यम से फसलों को नुकसान पहुंचाने वाले कीटों को समाप्त करना तथा उनपर नियंत्रण रखना ।
- केंद्र की जैविक प्रयोगशाला में मित्र कीटों का संवर्धन करना और उन्हें खेतों में छोड़ना ।
- जैविक कीटनाशकों के प्रयोग को प्रोत्साहित करना ।
- आवश्यकतानुसार फसलों पर सुरक्षित रसायनों का प्रयोग करना ।
- विभिन्न फसलों पर किसान खेत पाठशालाओं का आयोजन करना एवं फसलों पर लगने वाले कीट/रोग की पहचान कराना तथा प्राकृतिक फसल सुरक्षा तकनीक को अपनाने के लिए किसानों को प्रेरित एवं प्रोत्साहित करना ।
- राज्य सरकार के कृषि विभाग एवं कृषि कार्य से संबंधित अन्य संस्थानों से संपर्क करके उनके सहयोग से एकीकृत नाशीजीव प्रबंधन पद्वति को बढ़़ावा देना ।
- बोने से पहले बीजों का उपचार करना ताकि आगे चलकर पौधे विभिन्न रोगों से मुक्त रखे जा सकें ।
आई.पी.एम
किसान खेत पाठशालाओं का किसानों के बीच में आयोजन आई.पी.एम पद्वति को लोकप्रिय
बनाने का एक सशक्त माध्यम है ।
आई.पी.एम किसान खेत पाठशाला एक अनौपचारिक
शिक्षा पद्वति है जिसके माध्यम से किसानों को उनके अनुभवों के समाहित करते हुए
खेतों में ही वैज्ञानिक कृषि पद्वति से स्वयं करके सीखने की प्रक्रिया द्वारा
एकीकृत नाशीजीव प्रबंधन के बारे में प्रशिक्षित किया जाता है ताकि वे अपने खेतों
की कृषि क्रियाओं के बारे में स्वयं निर्णय ले सकें ।
आई.पी.एम किसान खेत पाठशाला
का संचालन पूरी फसल अवधि के दौरान सप्ताह में एक बार खेत में निगरानी भ्रमण एवं बैठक
करके किया जाता है । प्रत्येक किसान पाठशाला में 30 किसानों का चयन किया जाता है
जिनको प्रति सप्ताह प्रशिक्षण दिया जाता है । किसान पाठशाला में निम्नलिखित
गतिविधियां आयोजित की जाती हैं –
- किसान की आई.पी.एम के बारे में जानकारी का पता लगाने हेतु किसानों के साथ बातचीत करके एक बेंचमार्क सर्वेक्षण द्वारा पूर्वावलोकन किया जाना ।
- किसानों को समूहों में बांटना एवं प्रत्येक समूह के एक मुखिया का चयन ।
- किसान पाठशाला की प्रत्येक बैठक में कृषि पारिस्थितिक तंत्र विश्लेषण, एक विशेष विषय पर चर्चा एवं एक गतिशीलता गतिविधि कम से कम तीन गतिविधियां अवश्य की जाती हैं इसके अलावा खेत भ्रमण, कीट चिड़िया घरों के द्वारा विभिन्न परभक्षी एवं परजीवी कीटों की गतिविधियों का अवलोकन, परस्पर भागीदारी के द्वारा किये जाने वाले शोधकार्य के प्रयोगों को करना आदि गतिविधियां भी की जाती हैं ।
सत्र के अंत में एक दिन फील्ड डे या
खेत दिवस के रूप में मनाया जाता है जिसमें किसान खेत पाठशाला में भाग लेने वाले
किसानों के अलावा अन्य किसानों को भी बुलाया जाता है जिससे उन्हें इस खेत
पाठशाला कार्यक्रम की उपयोगिता की जानकारी हो सके और इस कार्यक्रम का अन्य कृषकों
के बीच प्रचार एवं प्रसार हो सके ।
फसल
पारिस्थतिक तंत्र विश्लेषण (एग्रो इको सिस्टम एनालिसिस) फसल से संबंधित सभी जैविक
एवं अजैविक कारकों का विश्लेषण करके उनके पारस्परिक प्रभावों व संबंधों के
अनुसार कृषि क्रियाओं को करना एग्रो इको सिस्टम एनालिसिस कहलाता है ।
फसल
पारस्थितिक तंत्र विश्लेषण किसान खेत पाठशाला में की जाने वाली एक प्रमुख गतिविधि
है जिसको करने के लिए किसान समूहों में खेत में भ्रमण करते हैं एवं खेत में पाये
जाने वाले सभी जैविक कारकों जैसे – लाभदायक व हानिकारक जीवों की संख्या का आंकलन, एवं उनकी विभिन्न अवस्थाओं का
एकत्रीकरण तथा सभी एकत्रित किए गए वनस्पतिओं व जंतुओं की पहचान करना एवं उनका एक
ड्रांइगसीट पर चित्रीकरण करते हैं । इसके अलावा खेत पारिस्थितिक तंत्र में संबंधित
सभी अजैविक कारकों जैसे – मिट्टी की दशा तथा अन्य मौसमी कारणों, फसल के स्वास्थय की स्थिति का भी
अवलोकन करके उनको ड्राइंगसीट पर चित्रीकरण कर दर्शाते हैं । इसके अलावा सभी पादप
कारकीय तथ्यों एवं पौधे में पाये जाने वाले नुकसान की भरपाई की जाने वाली योग्यता
से संबंधित सभी कारणों एवं तथ्यों का भी उल्लेख इस चित्रीकरण में करते हैं ।
इसके अलावा सभी किसान समूहों के बीच में एक सामूहिक वार्तालाप (आपसी चर्चा) की
जाती है और एक सामूहिक निष्कर्ष निकाला जाता है जिसको खेत में लागू किया जाता है
।
एग्रो
इको सिस्टम एनालिसिस गतिविधि के प्रमुख घटक निम्नलिखित हैं –
- पौधों के विभिन्न अवस्थाओं पर पौधों के स्वास्थ्य की जानकारी ।
- पौधों में नुकसान की भरपाई करने की क्षमता ।
- हानिकारक एवं लाभदायक जंतुओं की संख्या का आंकलन एवं उनकी विभिन्न अवस्थाओं का एकत्रीकरण जिसमें खर-पतवार व सूत्रकृमि भी शामिल है ।
- मिट्टी की अवस्था एवं दशा ।
- मौसमी कारकों का अवलोकन ।
- किसान का पूर्व अनुभव ।
फसल में पाये जाने वाले लाभदायक एवं
हानिकारक जीवों की संख्या का आंकलन आंखों से देखकर, फिरोमोन एवं अन्य ट्रेपों से पकड़कर किया जाता है ।
एग्रो इको सिस्टम
एनालिसिस खेत के बारे में की जाने वाली क्रियाओं के बारे में निर्णय लेने के लिए
करते हैं । आम तौर पर किसान अपने खेतों में होने वाली कृषि क्रियाओं एवं कीटनाशकों
को छिड़काव के बारे में निर्णय लेने के लिए निम्नलिखित तरीके अपनाता है –
- अपने अनुभव के अनुसार
- अपने सहयोगी एवं पड़ोसी कृषकों को देखकर
- एहतियाती उपाय के रूप में
- कीटनाशक विक्रेता की सलाह के अनुसार
- कृषि प्रचार एवं प्रसार कार्यकर्ताओं की सलाह के अनुसार
- निश्चित अवधि के अंतराल के अनुसार बिना खेत की स्थिति का अवलोकन करके
- राजकीय कृषि विश्वविद्यालय एवं राजकीय कृषि विभाग के द्वारा बनाई गई व्यावहारिक ज्ञान देने हेतु पैकेज में दर्शाये गये सिफारिशों के अनुसार।
कुछ जानकार एवं प्रशिक्षित किसान ये निर्णय निम्नलिखित
तरीकों को अपनाकर करते हैं-
- खेत की निगरानी करने के उपरांत जरूरत के अनुसार
- खेतों में पाये जाने वाले मित्र एवं शत्रु जंतुओं की संख्या के अनुपात के अनुसार
- फिरोमोन ट्रैप या प्रकाश जाल का उपयोग करके उसमें फंसने वाली कीटों की संख्या को देखकर
- केंद्रीय कीटनाशक बोर्ड एवं पंजयन समिति द्वारा सिफारिश की गई सलाह के अनुसार कीटनाशकों के डिब्बे में पाये जाने वाले लेबल को देखकर
उपरोक्त सभी तरीकों की
अपनी-अपनी सीमाएं भी हैं जिनकी वजह से उपरोक्त कोई भी विधि संपूर्ण रूप से
परिपूर्ण नहीं है । उदाहरण के तौर पर उपरोक्त विधियों में फसल में पाये जाने वाले
नुकसान को भरपाई करने की क्षमता, पादप
कारकीय गतिविधि एवं विपरीत मौसमी परिस्थितियों के प्रभाव आदि को सम्मिलित नहीं
किया जाता जबकि इनका प्रभाव फसल स्वास्थ्य एवं पैदावार पर अधिकांश रूप से पड़ता
है । उपरोक्त तथ्यों को ध्यान में रखते हुए कृषि वैज्ञानिकों ने खेतों में
कीटनाशकों के छिड़काव एवं अन्य कृषि क्रियाओं को करने के लिए फसल पारिस्थितिक
तंत्र विश्लेषण ( एग्रो इको सिस्टम एनालिसिस
) पद्वति को अपनाने पर जोर दिया जाता
है जिसमें फसल में पाये जाने वाले जैविक व अजैविक कारणों एवं फसल वातावरण तथा फसल
के फीजियोलॉजिकल व विपरीत परिस्थितियों को सहन करने की क्षमता के प्रभाव को मद्दे
नजर रखा जाता है । इस प्रकार फसल पारिस्थितिक तंत्र विश्लेषण को अपनाकर रासायनिक
कीटनाशकों के छिड़काव एवं उपयोग को कम करके फसल को स्वस्थ रखा जा सकता है और
वातावरण को प्रदूषित होने से बचाया जा सकता है ।
फसल पारिस्थितिक तंत्र विश्लेषण ( एग्रो इको सिस्टम एनालिसिस ) करने के लिए किसानों निम्न बातों
का सघन ज्ञान करवाना अति आवश्यक है ।
फसल में पाये जाने वाले सभी
हानिकारक एवं मित्र कीटों के पारस्परिक संबंधों एवं क्रियाकलापों का ज्ञान करवाना, क्योंकि फसल में पाये जाने वाले
मित्र कीट या मित्रजीव,
नाशीजीवों की संख्या पर नियंत्रण रखते हैं । ये मित्र कीट नाशीजीवों का भक्षण
करके, आश्रित होकर एवं रोग ग्रस्त
करके नियंत्रित करते हैं । ये लाभदायक जीव 5 प्रकार के होते हैं ये हैं मकड़ियां, कीटपरभक्षी, कीट परजीवी, रोग पैदा करने वाले सूक्ष्म जीव
(रोग कारक या पैथोजेंस या फफूंदियों की वृद्वि को रोकने वाले होते हैं । फसल में
दो प्रकार की मकड़ियां पायी जाती हैं- एक जाला बनाने वाली दूसरी जो जाला नहीं
बनाती । दोनों प्रकार की मकड़ियां परभक्षी होती हैं । बिना जाला बनाने वाली
मकड़ियां सीधे शिकार करती हैं एवं जाला बनाने वाली मकड़ियां जाले में फंसाकर शिकार
करती हैं । मकड़ियां कीटों से भिन्न् होती हैं इनमें 8 टांगें होती हैं जबकि
कीटों में 6 टांगें होती हैं मकड़ियों का शरीर दो भागों में बंटा होता है जबकि
कीटों का तीन भागों में इस प्रकार मकड़ी व कीट की पहचान की जा सकती है ।
कीट परभक्षी कई प्रकार के होते हैं जैसे कि इन्द्रगोप, डैमसल मक्खी, ड्रैगन मक्खी (किशोरी मक्खी), मीजोवीलिया, माइक्रोवीलिया, ओफोयोनिया, कैराबिड बीटल, मीडोग्रासहोपर, क्राइसोपरला, विभिन्न प्रकार के मकौड़े, वाटरस्ट्राइडर आदि कुछ कीट
परभक्षियों के उदाहरण हैं ।
कीटपरभक्षी भी कई प्रकार के होते हैं जैसे कि अण्ड परजीवी, ईली परजीवी, प्यूपल परजीवी, निम्फल परजीवी, प्रौढ़ परजीवी, निम्फाल व प्रौढ़ परजीवी, ये सभी परजीवी अपना जीवन अपने
मेजबान परजीवी जीवों पर ( उनके ऊपर या भीतर) व्यतीत करते हैं उनसे अपना भोजन व
शरण लेते हैं ।
रोग पैदा करने वाले सूक्ष्म जीव जिनमें N.P.V वायरस, ब्यूवेरिया
वैसियाना, फफूंद, मेटाराइजियम फफूंद, वरटीसिलियम फफूंद आदि प्रमुख हैं जो
जैव कीटनाशक के रूप में भी प्रयोग किये जाते हैं ।
इसके अलावा खेत की मिट्टी भी
कुछ ऐसी फफूंदियां भी पायी जाती है जो रोग पैदा करने वाली फफूंदियों की वृद्धि को
रोक देते हैं । ऐसी फफूंदियों के प्रमुख उदाहरण ट्राइकोडरमा नामक फफूंदी है जिसकी
दो प्रजातियों एवं कई स्ट्रेन पाये जाते हैं ये फफूंदियां भी जैव कीटनाशकी के रूप
में प्रयोग की जाती है ।
इन सभी प्रकार के जैव नियंत्रण एजेंटों की कृषकों को पहचान अवश्य
करानी चाहिए जो कि फसल पारिस्थितिक तंत्र विश्लेषण करने में मदद करती है ।
इसके अतिरिक्त सभी जैव नियंत्रण जीवों की भक्षण क्षमता की जानकारी
भी किसानों को दी जानी चाहिए जो कि फसल पारिस्थतिक तंत्र विश्लेषण के उपरान्त
खेत के बारे में निर्णय लेने में महत्वपूर्ण योगदान देती है कुछ परभक्षी कीटों की
भक्षण क्षमता एवं परजीवियों की परजीवित करने की क्षमता निम्नवत है -
रबी व खरीफ फसलों में किये गये पारिस्थतिक तंत्र विश्लेषणों के
अनुभवों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि खरीफ फसलों में रबी फसलों की तुलना में
नाशीजीवों के प्राकृतिक शत्रु यानि मित्रजीव बहुतायत में होते हैं क्योंकि इन
फसलों में माइक्रोक्लाइमेट ( फसलों का सूक्ष्म वातावरण ) इनके लिए अनुकूल होता
है । तापक्रम लगभग 28 से 30 डिग्री सेंटीग्रेट के
आसपास होता है एवं बरसात की वजह से आद्रर्ता भी 75 से 80 प्रतिशत होती है
जो कि कीटों एवं बीमारियोंके पनपने के लिए अनुकूल होती है इसके विपरीत रबी फसलों
में तापक्रम कम होने की वजह से कीड़े एवं बीमारी का विकास धीमी गति से होता है एवं
कीटों का जीवन चक्र की अवधि बढ़ जाती है ।
धान की फसल में यह देखा गया है कि यदि हानिकारक जीवों एवं नाशीजीवों
के प्राकृतिक शत्रुओं लाभदायक जीवों की संख्या का अनुपात 2:1 हो तो कीटनाशकों का छिड़काव नहीं
करना चाहिए परंतु खेत की निगरानी अवश्य करनी चाहिए जिससे अन्य अजैविक कारकों के
प्रभाव का आंकलन किया जा सके और आवश्यकतानुसार उनका निदान किया जा सके । इस तरह
फसल को अनावश्यक कीटनाशकों के छिड़काव से बचाया जा सकता है ।
फसल की दशा एवं हानिकारक कीटों एवं
लाभदायक कीटों के वृद्धिकरण की दिशा देखकर ही कीटनाशकों के छिड़काव के बारे में
निर्णय लेना चाहिए ।
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