O I'm आज के दौर में करोड़ों रुपए कृषि शिक्षा एवं अनुसंधान पर खर्च होते हैं l कि तू उस ज्ञान का उपयोग खेती को बढ़ावा देने के लिए या उसको प्रमोट करने के लिए नहीं हो पा रहा है l कृषि विश्वविद्यालय द्वारा निकले हुए कृषि स्नातक एवं परास्नातक विद्यार्थी या वैज्ञानिक कृषि के कार्य को स्वतंत्र रूप से करने तथा कृषि को बढ़ावा देने के पक्ष में नहीं रहते हैं बल्कि वहi white collar job अर्थात office और प्रशासनिक पोस्टों पर कार्य करना ज्यादा पसंद करते हैं इसके साथ-साथ हुए अगर सरकारी विभाग में नौकरी ना मिले तो वह कारपोरेट सेक्टर में जाना पसंद करते हैं या बैंकों में जाना पसंद करते हैं परंतु खेती के कार्य को बढ़ावा देना या उस में भागीदारी करना पसंद नहीं करते हैं lयह हमारी शिक्षा नीति मैं कमी है l हमारे कृषि विश्वविद्यालयों ने यह तय नहीं कर पाया है कि उन्हें कृषि स्नातक किसान बनाने हैं जो हमारी खेती के कार्य में सहायक हो सके तथा खेती को बढ़ावा देने के लिए अपना योगदान दे सकें अथवा उनको एग्रीकल्चर या कृषि के ज्ञान युक्त कृषि के कार्यालयों में या बैंकों में या फार्मास्युटिकल्स में या कारपोरेट सेक्टर में एक प्रकार के बाबू या क्लर्क के रूप में काम करने वाले बाबू बनाने है l पर यह देखा गया है कि कृषि विश्वविद्यालय से निकला हुआ विद्यार्थी जोकि परास्नातक एवं पीएचडी की डिग्री धारी होता है स्वतंत्र रूप से खेती के कार्य करने में सक्षम नहीं होता या रुचि नहीं लेता है तथा उनके ऊपर विश्वविद्यालय के द्वारा किया गया खर्च व्यर्थ जाता है l अतः हमें कृषि विश्वविद्यालय के मैंडेट पर पुनर्विचार करना पड़ेगा तथा इस प्रकार से शिक्षा देनी होगी की विश्वविद्यालयों से निकले हुए वैज्ञानिक स्वतंत्र रूप से खेती कर सकें तथा खेती के कार्य को आगे बढ़ाने में अपना योगदान दे सकें l इसके लिए हमें कुछ नियमों में भी परिवर्तन करना होगा कि कृषि स्नातक वैज्ञानिक या पीएचडी होल्डर वैज्ञानिकों को कुछ दिनों तक कृषकों के मध्य रह करके भारतीय कृषि को बढ़ावा देने के लिए उसमें सुधार लाने के लिए अपने ज्ञान का एवं कृषकों के ज्ञान के साथ अपना ज्ञान समन्वय करके कृषि क्षेत्र में अपने अनुसंधान का प्रयोग करके भारतीय कृषि को स्ट्रैंथ इन या सुदृढ़ बनाने में मददगार सिद्ध हो सके l
प्रय : यह देखा गया है कि सरकारी योजनाओं एवं वैज्ञानिक तकनीकी ओं का सही प्रकार से क्रियान्वयन किसानों के बीच नहीं हो पाता है और किसान अपने हिसाब से मेहनत करके फसल उगाता है और अगर एक ही फसल की पैदावार ज्यादा होता है तो कई बार रेट धराशाई हो जाते हैं और किसानों को नुकसान सहन करना पड़ता है l से बचने के लिए किसानों को सरकार की योजनाओं तथा वैज्ञानिक तकनीकी ओं का का भली-भांति ज्ञान होना चाहिए l जिसे वह कृषि उत्पादन मैं प्रयोग कर सकें तथा अपनी इनकम को बढ़ा सकें और देश के विकास में अपना योगदान और अधिक दे सके l प्राय यह देखा गया है कि जब भी कोई कृषि प्रचार एवं प्रसार कार्यकर्ता कृषकों के मध्य जाता है तो वह किसी विशेष विषय का ज्ञान रखता होता है परंतु किसान यह उम्मीद करता है की वह प्रसार एवं प्रचार कार्यकर्ता उसकी सभी प्रकार की आर्थिक ,सामाजिक ,राजनैतिक एवं कृषि संबंधी सभी प्रकार की समस्याओं का निवारण कर सकें l इस प्रकार की क्वालिटी एक सक्षम कृषि प्रचार एवं प्रसार कार्यकर्ता मैं होनी भी चाहिए इससे वह कृषकों को संतुष्ट कर सकेl कृषक भाई लर्निंग बाय डूइंग मेथड के द्वारा किसी के ज्ञान को सुगमता से सीख सकते हैं l जिसके लिए उनकी लोकेलिटी यहां उनके गांव मैं ही कृषि प्रचार एवं प्रसार कार्यकर्ताओं के द्वारा कृषि तकनीकी का demonstration करना आवश्यक होता हैl
अतः कृषि विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम में शिक्षा की पद्धति में लर्निंग बाय डूइंग मेथड को प्राथमिकता देना आवश्यक है l स्नातक एवं परास्नातक विद्यार्थियों को कृषकों के बीच में कम से कम 1 वर्ष या सीजन लॉन्ग practical training कोर्स को भी शामिल करना चाहिए जिससे हुए खेती करने की पद्धति से भलीभांति अवगत हो सकें तथा कृष को को खेती करने में आने वाली समस्याएं उनकी सोशियो इकोनामिक की जानकारी समस्याएं आर्थिक समस्याएं प्राकृतिक समस्याएं एवं आपदाएं नीति संबंधी समस्याएं या विपणन संबंधी समस्याएं की जानकारी एवं उन से बचने के उपाय हो की समझ भी विद्यार्थियों एवं भावी वैज्ञानिकों के बीच में उत्पन्न हो सके l
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